बड़वाग्नि का अर्थ
[ bedaagani ]
बड़वाग्नि उदाहरण वाक्य
परिभाषा
संज्ञा- वह आग जो समुद्र के अंदर जलती हुई मानी जाती है:"बड़वानल का मानवीकरण घोड़ी के सिर के रूप में किया गया है"
पर्याय: बड़वानल, बड़वा दीप्ति, बड़वा, बड़वागि, समुद्राग्नि, बड़वानलरस, अबिंधन, अबिन्धन, अब्ध्यग्नि
उदाहरण वाक्य
अधिक: आगे- उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले कालरूपी बड़वाग्नि के मुँह में गिरने वाले जीवनरूपी सागर के तरंग के समान पदार्थों को कौन गिन सकता है ?
- हमारी समझ में यो यह आता है कि सारी रात पयोनिधि के पानी के भीतर जब यह पडा था , तब बड़वाग्नि की ज्वाला ने इसे तपाकर खूब दहकाया होगा।
- हमारी समझ में यो यह आता है कि सारी रात पयोनिधि के पानी के भीतर जब यह पडा था , तब बड़वाग्नि की ज्वाला ने इसे तपाकर खूब दहकाया होगा।
- सूर्य के उस लाल-पीले किरण समूह को देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे वही बड़वाग्नि समुद्र की जल-राशि को जलाकर , त्रिभुवन को भस्म कर डालने के इरादे से, समुद्र के ऊपर उठ आयी हो।
- सूर्य के उस लाल-पीले किरण समूह को देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे वही बड़वाग्नि समुद्र की जल-राशि को जलाकर , त्रिभुवन को भस्म कर डालने के इरादे से , समुद्र के ऊपर उठ आयी हो।
- जैसे सागर में उत्पन्न होकर बड़वाग्नि के मुँह में गिरकर नष्ट होने वाले अनेक कल्लोलों को कोई नहीं गिन सकता वैसे ही संसार में उत्पन्न होकर काल के मुँह में गिरने वाले असंख्य जीवों को गिन सकने की किसमें शक्ति है ?
- आठ सालों के बाद माँ मुस्काई थी ! बाउ के भीतर सातों समुन्दर के तूफान उमड़ से पड़े , अन्दर की आग बड़वाग्नि बन हहरा उठी और हिचकिओं के साथ आँखों से गंगा जमुना बह निकलीं। . . . ब्रह्मराक्षस रो रहा था।
- आ जाओ विस्तीर्ण सिंधु भुजपाश में सदियों से धधक रही है बड़वाग्नि , अंतर में … बहुत हो चुका ग्रहण तुम्हारा अब समाज की टोकाटोकी से ना डरो मंदराचल पर्वत की विशाल कंदरा से उगते हो तुम पर किसको ये लगता है …
- कामना-तरंगों से अधीर जब विश्वपुरुष का हृदय-सिन्धु आलोड़ित , क्षुभित, मथित होकर, अपनी समस्त बड़वाग्नि कण्ठ में भरकर मुझे बुलाता है, तब मैं अपूर्वयौवना पुरुष के निभृत प्राणतल से उठकर प्रसरित करती निर्वसन, शुभ्र, हेमाभ कांति कल्पना लोक से उतर भूमि पर आती हूँ, विजयिनी विश्वनर को अपने उत्तुंग वक्ष पर सुला अमित कल्पों के अश्रु सुखाती हूँ.
- तुम सदा ही गीत बनकर शब्द में ढलती रहो तुम सदा ही प्रीत बनकर हृदय में पलती रहो हर मरुस्थल राह का बहु पुष्प से भर जाएगा संग मेरे , तुम सदा यदि बाँह धर चलती रहो मैं अकेला ही सफर में आज तक चलता रहा शाप कोई, प्राण में, बड़वाग्नि सा जलता रहा हर तपन, हर पीर,