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मन्दाक्रान्ता का अर्थ

[ mendaakeraanetaa ]
मन्दाक्रान्ता उदाहरण वाक्य

परिभाषा

संज्ञा
  1. सत्रह वर्णों का एक वर्णवृत्त:"मंदाक्रांता के प्रत्येक चरण में मगण, भगण, नगण, तगण एवं अंत में दो गुरु होते हैं"
    पर्याय: मंदाक्रांता

उदाहरण वाक्य

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  1. जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या
  2. मन्दाक्रान्ता छन्द में प्रत्येक चरण में मगण , भगण, नगण, तगण, तगण और दो गुरु वर्णों पर यति होती है ।
  3. भृङ्गदूतम् ( २ ०० ४ ) - दो भागों में विभक्त और मन्दाक्रान्ता छन्द में बद्ध ५ ० १ श्लोकों में रचित संस्कृत दूतकाव्य।
  4. प्रसिद्ध शिवमहिम्न स्तोत्र ( महिम्नः पारं ते परम विदुषां यद्यसदृशी ) शिखरिणी छंद में और मेघदूत ( कश्चित्कान्ता-विरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः ) मन्दाक्रान्ता छंद में है।
  5. जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूल्विक्रीडित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह वीरान , निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
  6. जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूल्विक्रीडित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह वीरान , निर्जन , शून्य भवन वह छन्द गा उठता।
  7. इस ग्रंथ में आचार्य ने छंदविशेष में कविविशेष के अधिकार की चर्चा की है , जैसे अनुष्टुप छंद में अभिनन्द का , उपजाति में पाणिनि का , वंशस्थ में भारवि का , मन्दाक्रान्ता में कालिदास , वसन्ततिलका में रत्नाकर , शिखरिणी में भवभूति , शार्दूलविक्रीडित में राजशेखर का।
  8. इस ग्रंथ में आचार्य ने छंदविशेष में कविविशेष के अधिकार की चर्चा की है , जैसे अनुष्टुप छंद में अभिनन्द का , उपजाति में पाणिनि का , वंशस्थ में भारवि का , मन्दाक्रान्ता में कालिदास , वसन्ततिलका में रत्नाकर , शिखरिणी में भवभूति , शार्दूलविक्रीडित में राजशेखर का।
  9. लौकिक-संस्कृत , पाली , अपभ्रंश तथा मध्ययुगीन भक्तिकालीन हिन्दी / काव्यधारा में जहां अनुष्टुप , इन्द्रवज्रा , शार्दुलविक्रीडित , द्रुतविलम्बित , शिखरणी , मालिनी , मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का पिरयोग देखने को मिलता है , वहीं दूसरी ओर वेदों , संहिताओं , षड्दर्शन तता उपनिषदों में उक्त छन्तों के अलावा गायत्री , जगती , वृहती , त्रिष्टुप , उष्णिक , भूरिक तथा प्रगाथ आदि छन्दों का प्रयोग प्रधानता से किया गया है।
  10. लौकिक-संस्कृत , पाली , अपभ्रंश तथा मध्ययुगीन भक्तिकालीन हिन्दी / काव्यधारा में जहां अनुष्टुप , इन्द्रवज्रा , शार्दुलविक्रीडित , द्रुतविलम्बित , शिखरणी , मालिनी , मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का पिरयोग देखने को मिलता है , वहीं दूसरी ओर वेदों , संहिताओं , षड्दर्शन तता उपनिषदों में उक्त छन्तों के अलावा गायत्री , जगती , वृहती , त्रिष्टुप , उष्णिक , भूरिक तथा प्रगाथ आदि छन्दों का प्रयोग प्रधानता से किया गया है।


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