अंतराय उदाहरण वाक्य
उदाहरण वाक्य
- ये नौ अंतराय योग के विभिन्न स्तरों पर् योगानुष्ठाता के सम्मुख आते रहते हैं, जो चित्त को विक्षिप्त कर योगमार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं।
- ऐसा कहते हैं न? अर्थात् जितनी कल्पना में आये उतनी चीज़ें संसार में होती है पर आपके अंतराय नहीं होने चाहिए, तभी वे मिलती हैं।
- घातिया-कर्म-जीव के गुणों का घात करने वाले अर्थात् गुणों को ढ़कने वाले या विकृत करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय और मोहनीय इन चार कर्मों को घातिया-कर्म कहते हैं ।
- तर अख्तर अठहत्तर अंतर अंतरंग अंतरजाल अंतरजालीय अंतरप्रांतीय अंतरराषट्रीय अंतरराष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीयकरण अंतरराष्ट्रीयता अंतरर्राष्ट्रीय अंतरसांस्कृतिक अंतरा अंतराज्यीय अंतरात्मा अंतराय अंतराराष्ट्रीय अंतराल अंतरिक्ष अंतरिम अंतर्कथाएं अंतर्गत अंतर्गर्भ अंतर्जाल अंतर्द्वंद्व अंतर्निहित अंतर्प्रक्रिया अंतर्भाव अंतर्मन अंतर्राज्यीय अंतर्राष्ट्रीय अंतर्वासना अंतर्विरोध अधिकतर अनुत्तरित अर्थांतर अवतरण
- उस बुद्धि को अंतराय हो रहा था तो क्या करे? बलवा तो करेगी ही न? मतलब यह ज्यादा बुद्धि हुई उसका इतना बड़ा गेरलाभ न? इसलिए इन मज़ाक करनेवालों को बिना लिए-दिये यह दुःख भुगतना नसीब हुआ।
- देह् में व्याधि, रोग आदि की स्थिति चित्त में विक्षेप, व्यथा बेचैनी उत्पन्न कर देती है, जिससे चित्त योग की ओर प्रवृत्त नहीं हो पाता ; इसी कारण वे व्याधि आदि योग में अंतराय-विघ्नकारक-बाधक बताये गये हैं।
- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।
- की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है।
- की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है।
- की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है।