ब्रह्मज्ञ का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- शाकल्य- ' पृथ्वी जिसका शरीर है , अग्नि जिसका लोक है , मन जिसकी ज्योति है और जो समस्त जीवों का आत्मा है , आश्रय-रूप है , ब्रह्मज्ञ है , उस पुरुष को जानते हो ? ' याज् ञ. - ' जानता हूं।
- ब्रह्मज्ञ पुरुष पूर्ण सागर के समान शोभित होता है , वह गई हुई ( नष्ट हुई ) वस्तु की उपेक्षा कर देता है अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं करता और प्राप्त वस्तु का अनुसरण करता है , उसे क्षोभ नहीं होता और निश्चल नहीं होता है अर्थात् स्वाभाविक व्यवहार का त्याग करता हुआ निश्चल नहीं होता है।
- स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥ ५ / २ ० ब्रह्म में अवस्थित ( ब्रह्मणि स्थितः ) , निश्चल स्थिर बुद्धि वाले ( स्थिर बुद्धिः ) , संशयरहित दृष्टिकोण वाले ( असम्मूढः ) , ब्रह्मज्ञ व्यक्ति ( ब्रह्मविद् ) , प्रिय वस्तु मिलने पर भी ( प्रियं प्राप्य ) हर्षित नहीं होते ( न प्रहृष्येत् ) और अप्रिय वस्तु मिलने पर ( अप्रियं च प्राप्य ) दुखी भी नहीं होते ( न उदविजेत् ) ।
- स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥ ५ / २ ० ब्रह्म में अवस्थित ( ब्रह्मणि स्थितः ) , निश्चल स्थिर बुद्धि वाले ( स्थिर बुद्धिः ) , संशयरहित दृष्टिकोण वाले ( असम्मूढः ) , ब्रह्मज्ञ व्यक्ति ( ब्रह्मविद् ) , प्रिय वस्तु मिलने पर भी ( प्रियं प्राप्य ) हर्षित नहीं होते ( न प्रहृष्येत् ) और अप्रिय वस्तु मिलने पर ( अप्रियं च प्राप्य ) दुखी भी नहीं होते ( न उदविजेत् ) ।
- नैसर्गिक शोभा न भी होती , प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात् परब्रह्म का यहाँ विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहाँ की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था, वह व्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।
- नैसर्गिक शोभा न भी होती , प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात् परब्रह्म का यहाँ विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहाँ की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था, वह व्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।
- नैसर्गिक शोभा न भी होती , प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात् परब्रह्म का यहाँ विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था, यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी, जहाँ की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था, वह व्रजवासी भी दर्शनीय थे, जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे, क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।
- नैसर्गिक शोभा न भी होती , प्राचीन लीलाचिह्न भी न मिलते होते तो भी केवल साक्षात् परब्रह्म का यहाँ विग्रह होने के नाते ही यह स्थान आज हमारे लिए तीर्थ था , यह भूमि हमारे लिए तीर्थ थी , जहाँ की पावन रज को ब्रह्मज्ञ उद्धव ने अपने मस्तक पर धारण किया था , वह व्रजवासी भी दर्शनीय थे , जिनके पूर्वजों के भाग्य की साराहना करते-करते भक्त सूरदास के शब्दों में बड़े-बड़े देवता आकर उनकी जूठन खाते थे , क्योंकि उनके बीच में भगवान अवतरित हुए थे।