विपथ का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- जब मन भौतिकता द्वारा विपथ कर दिया जाता है , तब वह विकारी कार्य-कलापों में उलझ जाता है और पूर्ण प्राप्ति नहीं कर पाता ।
- और जब तुम अपने ह्रिदय की निर्जनता में बस नही पाते तुम अपने होठों पर रहने लगते हो , और आवाज़ तो एक विपथ और एक विलास है.
- बुद्ध ने गृहस्थ और समाज के नैसर्गिक दायित्वों से पलायन को ऎसी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा प्रदान कर दी थी कि हर व्यक्ति , वह भिक्षु हो या गृहस्थ , संसार को असार , मोह-बन्ध और विपथ मान बैठा था ; और यह धारणा उसके अवचेतन में समा गई थी .
- कबीलाई समाज से सामंतशाही संमाज में स्थापित होने कि लम्बी प्रक्रिया का उल्लेख मैं नहीं करूंगा , क्योंकि एक तो यह दीर्घ कालीन सामाजिक -एतिहासिक संक्रमण कि विपथ गाथा है , दूसरी बात ये है कि यह परिवर्तन हर मुल्क में अपने -अपने मिज़ाज में दरपेश हुआ है .
- लेकिन मैं यह सोचता भी हूँ और आप जैसे गंभीर लोगों से पूछता भी हूँ कि यह अभिधामूलक ' ध्वनियाँ' कहीं हमें विपथ नहीं कर रहीं ? कविता का कथ्य मुझे मुझे गहरे तक प्रभावित कर रहा है और मेरी, मैं दुबारा कहना चाहता हूँ कि मेरी, अभिलाषा थी कि इस भावबोध पर कोई व्यंजनामूलक कविता, तुम्हारी लिखी कविता, पढता. धन्यवाद.
- तोड़ दो मन में कसी सब श्रंखलाएँ तोड़ दो मन में बसी सब संकीर्णताएँ बिंदु बनकर मै तुम्हे ढलने न दूंगा , सिन्धु बन तुमको उठाने आ रहा हूँ तुम उठो ,धरती उठे ,नभ शिर उठाये , तुम चलो गति में नई गति झनझनाए विपथ होकर मै तुम्हे मुड़ने न दूँगा प्रगति के पथ पर बढाने आ रहा हूँ सोहन लाल द्विवेदी
- छडी मुबारक ' हमेशा श्रीनगर के दशनामी अखाड़ा से कई सौ साधुओं के एक जुलूस के रूप में 140 किमी की विपथ यात्रा पर रवाना होती थी, जिसका प्रथम पड़ाव पम्पोर, दूसरा पड़ाव बिजबिहारा में और अनंतनाग में दिन को विश्राम करने के बाद सायं को मटन की ओर रवाना होकर रात का विश्राम करके दूसरे दिन प्रातः एशमुकाम की ओर चल पड़ती थी।
- ' छड़ी मुबारकÓ हमेशा श्रीनगर के दशनामी अखाड़ा से कई सौ साधुओं के एक जुलूस के रूप में 140 किमी की विपथ यात्रा पर रवाना होती थी , जिसका प्रथम पड़ाव पम्पोर , दूसरा पड़ाव बिजबिहारा में और अनंतनाग में दिन को विश्राम करने के बाद सायं को मटन की ओर रवाना होकर रात का विश्राम करके दूसरे दिन प्रात : एशमुकाम की ओर चल पड़ती थी।
- और नीचे लोग उस को देखते हैं , नापते हैं गति, उदय औ' अस्त का इतिहास ! किंतु इतनी दीर्घ दूरी शून्य के उस कुछ-न-होने से बना जो नील का आकाश वह एक उत्तर दूरबीनों की सतत आलोचनाओं को नयन-आवर्त के सीमित निदर्शन या कि दर्शन-यत्न को ! वे नापने वाले लिखें उस के उदय औ' अस्त कि गाथा सदा ही ग्रहण का विवरण ! किंतु वह तो चला जाता व्योम का राही भले ही दृष्टि के बाहर रहे- उस का विपथ ही बना जाता !
- विपथ होकर मैं तुम्हें मुड़ने न दूँगा , प्रगति के पथ पर बढ़ाने आ रहा हूँ. “सोहनलाल द्विवेदी” मालवा की मिट्टी में जन्में, रचे और बसे नरहरि पटेल मालवा की धड़कन माने जाते हैं...उनकी एक पुस्तक 'जाने क्या मैंने कही' में मानवीय मूल्यों पर आधारित छोटे छोटे निबन्ध हैं जिन्हें पढ़ना और गुढ़ना अच्छा लगता है...उन्हीं की एक कविता पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर पढ़ी और चाहा कि आप सबसे भी बाँटा जाए...आजकल उनके कुछ अमूल्य अनुभव यादों के रूप में रेडियोनामा पर भी पढ़े जा सकते हैं.