उजेरा का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा उतर क्यों न आयें नखत सब गगन के,नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा कटेगी तभी ये अंधेरी घिरी जब ,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये दीवाली मुबारक सही कहा आपने अच्छा प्रश्न
- कामना सज रही है ह्रदय में नई इस नये वर्ष की भोर की रश्मियां वॄष्टि बन कर सुधा की बरस जायें औ ' शांत हों हर तरफ़ जल रही अग्नियाँ कर रही है विभाजित ह्रदय की गली चन्द रेखायें दीवार जो खींचकर भोर उनका तिमिर पी उजेरा करे स्नह के एक संकल्प से सींचकर
- मगर दीप की दीप्ति से जग में , नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा, उतर क्यों न आएं नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अंधेरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए, जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा, उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
- प्राण ! पहले तो हृदय तुमने चुराया छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की बीत जाती रात हो जाता सबेरा , पर नयन-पंक्षी नहीं लेते बसेरा , बन्द पंखों में किये आकाश-धरती खोजते फिरते अँधेरे का उजेरा , पंख थकते , प्राण थकते , रात थकती खोजने की चाह पर थकती न मन की।
- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा उतर क्यों न आयें नखत सब गगन के,नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा कटेगी तभी ये अंधेरी घिरी जब ,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये दीवाली मुबारक इस रोचक प्रस्तुतीकरण से कुछ पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ रहे हैं शुभकामनाएं
- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा , उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के , नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा , कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब , स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा , उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के , नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा , कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब , स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। ”
- जब अँधेरा होता है तो जला ली जाती हूँ मैं और उजेरा होते ही एक फूँक से बुझा दी जाती हूँ मैं ओ ! रोशनी के दीवानों क्या पाते हो ऐसे तुम क्यों नही जलने देते पूरा क्षण - क्षण जला - बुझा कर तुम मत यूँ बुझाओ मुझको ज्यादा दर्द होता है कि पिघलता हुआ मोम ज्यादा गर्म होता है ।
- आत्मीय श्री शाही जी बिलकुल ठीक कहा आपने | पूर्व रचना में भी आपने इस और इशारा कर ही दिया था | यह सांसारिक प्रेम तो बस चार दिन का ही है लेकिन करले प्रीतिमोरे बालम सौ लखु रे जिव उजेरा | यह उजियारा तो उन परमात्मा के प्रेम से ही मिल पायेगा | फागुन के इस रंग को आध्यात्मिक रूप में सराहने का बहुत बहुत शुक्रिया |