देव मूर्ति का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- प्रदक्षिणा ( सं . ) [ सं-स्त्री . ] किसी पवित्र स्थान या देव मूर्ति के चारों ओर इस प्रकार घूमना कि वह पवित्र स्थान या मूर्ति बराबर दाहिनी ओर रहे ; परिक्रमा।
- प्रतिभा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् हिंदी में भावार्थ -द्विजातियां अपना देव अग्नि , मुनियों का देव उनके हृदय और अल्प बुद्धिमानों के लिये देव मूर्ति में होता है किन्तु जो समदर्शी तत्वज्ञानी हैं उनका देव हर स्थान में व्याप्त है।
- प्रतिभा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनाम् हिंदी में भावार्थ -द्विजातियां अपना देव अग्नि , मुनियों का देव उनके हृदय और अल्प बुद्धिमानों के लिये देव मूर्ति में होता है किन्तु जो समदर्शी तत्वज्ञानी हैं उनका देव हर स्थान में व्याप्त है।
- उसके मन में एक ही इच्छा शेष रह गयी थी , कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित देव मूर्ति का दर्शन कर ले और धीरे-धीरे समय के साथ उसकी यह इच्छा एक प्रकार की व्याकुलता में बदल गयी .
- 1 . जहां शिवलिंग स्थापित हो , उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती।
- ऐसा क्यों ? ” यमराज ने उत्तर दिया - “ देव मूर्तियों की पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा इस वेश्या में ही लगा रहा , जबकि पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देव मूर्ति में ही लगा रहा .
- द्वारा किसी भगवान , देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
- द्वारा किसी भगवान , देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
- द्वारा किसी भगवान , देवता या गुरु का होता है , आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं , लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
- मैं पतझड़ का बासी फूल ! चढ़ न सकूँगी देव मूर्ति पर, मिटना होगा बन कर धूल ! मैं पतझड़ का बासी फूल ! प्रिय के युगल चरण साकार, सह न सकेंगे मेरा भार,सौरभ हीन शून्य जीवन मम, इसे सजाना है बेकार,कान्त कल्पना प्रिय चरणों पर चढ़ने की, थी मेरी भूल !