नन्दनवन का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- लेकिन कुछ दिनों से गौमुख से निकलने वाली गंगा नदी का गौ जैसा मुहाना बंद हो गया है और वह पांच फीट से कुछ और दूर हटकर दूसरे स्थान नन्दनवन से निकल रही है।
- और वे ही बम मनुंय जाित क िवनाश में लगाये जाएँ ! नेताओं और राजाओं की अपेक्षा िकसी े आत्म ानी गुरु क हाथ में बागडोर आ जाय तो िव े नन्दनवन बन जाये।
- बाद में इन्होंने भगवान शंकर की विशेष रूप मंे आराधना की तथा भगवान शंकर की कृपा से उन्होंने उत्तर दिशा का आधिपत्य , अपने नाम की दिव्यपुरी नन्दनवन के समान दिव्य उद्यानयुक्त चैत्ररथ नामक वन तथा एक दिव्य सभा प्राप्त की।
- आद्यशंकराचार्यका कथन है कि जिस सत्पुरुष ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है , उसके लिये सम्पूर्ण जगत नन्दनवन है, समस्त वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सारा जल गंगाजल है, उसकी वाणी चाहे प्राकृत हो या संस्कृत, वह वेद का सार है, उसके लिए सारी पृथ्वी काशी है।
- रुदन कर रहा आज हिमालय सिसक रही गंगा की धारा दग मग है कैलास शंभु का व्यथित आज बद्रिश्वर प्यारा उधर सुलगती वन्हि शिखा लख भयकम्पित निज नन्दनवन है अमरनाथ के पावन मंदिर पर अरियोंका कृद्ध नयन है निज माता की लाज बचाने हम सब आज बने प्रलयंकर ॥ १ ॥
- मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं , जो लिंग बृहस्पति तथा देवश्रेष्ठों से पूजित है, और जिस लिंग की पूजा देववन अर्थात् नन्दनवन के पुष्पों से की जाती है, जो भगवान् सदाशिव का लिंग स्थूल-दृश्यमान इस जगत् से परे जो अव्यक्त-प्रकृति है, उससे भी परे सूक्ष्म अथवा व्यापक है, अत: वही सबका वन्दनीय तथा अतिशय प्रिय आत्मा है।
- हे मेरे बेनामी सहृदय ! अगर हिन्दी साहित्य और भाषा के किसी धुरंधर जानकार का ठौर आपको नन्दनवन सरीखा लगता हो और यह शब्दों का खालिस सफर मृत्युलोकी वसुधा तो एक बात बताना जरूरी है कि - “ वसुधा से भिन्न कहीं होता है नन्दन वन ऐसी प्रतीति जिय में मैं ठानता नहीं , उसे जानता नहीं , उसे मानता नहीं । ”
- और यह कैलेण्डर से मालूम था अमुक दिन वार मदनमहीने कि होवेगी पंचमी दफ़्तर में छुट्टी थी- यह था प्रमाण और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल आम बौर आवेंगे रंग-रस-गन्ध से लदे-फँदे दूर के विदेश के वे नन्दनवन होंगे यशस्वी मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व अभ्यास करके दिखावेंगे यही नहीं जाना था कि आज के नग्ण्य दिन जानूंगा जैसे मैने जाना , कि बसन्त आया।
- प्रतिदिन होने वाले उनके यज्ञ के धुएँ से नन्दनवन के कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे , मानो राजा की असाधारण दान-शीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों , उनके यज्ञ में प्राप्त पुरोडाश के रसास्वादन में सदा आसक्त होने के कारण देवता लोग कभी प्रतिष्ठानपुर को छोड़कर बाहर नहीं जाते थे , उनके दान के समय छोड़े हुए जल की धारा , प्रताप-रूपी तेज और यज्ञ के धूमों से पुष्ट होकर मेघ ठीक समय पर वर्षा करते थे।