मारिफ़त का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- मैंने कहा कि मज़्कूर क़ौल में सिर्फ़ वाक़ये का ज़िक्र है , जबकि हज़रत अली के क़ौल में इस क़िस्म के वाक़ये से मारिफ़त का पहलू लिया गया है।
- यह हुक्म बेशक इस्लाम के अरकान में प्राथमिक हैसियत रखता है लेकिन यह अहमियत उसकी अंदरूनी मारिफ़त की बुनियाद पर है , न कि सिर्फ़ ज़बानी उच्चारण के आधार पर।
- हज़रत ज़ुन्नून रहमतुल्लाह अलैह ने सूफ़ी साधना में अहवाल ( रूहानी अनुभूति) और मक़ामात (रूहानी पद) के महत्व को स्थापित करके मारिफ़त (तत्वज्ञान) को एक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया।
- क़ुरआनी मआरिफ़ इस क़द्र गहरे वसीअ व अमीक़ हैं इन्सान जिस क़द्र अहले बैत ( अ.स. ) के उलूम में तफ़क्कुर व तदब्बुर करे इतना ही क़ुरआन की अज़मत और मारिफ़त व इरफ़ान के चश्मे फ़ूटने शुरु हो जाते हैं।
- गुह्य ( Esoteric ) एवं अन्तर ज्ञानात्मक ( Intiutine ) होने के कारण सूफी मत में जो महत्त्व ' मारिफ़त ' ( प्रभु भक्ति अथवा प्रभु भक्ति का प्रेरक दैवी ज्ञान ) का है वह पुस्तकीय ज्ञान का नहीं है .
- गुह्य ( Esoteric ) एवं अन्तर ज्ञानात्मक ( Intiutine ) होने के कारण सूफी मत में जो महत्त्व ' मारिफ़त ' ( प्रभु भक्ति अथवा प्रभु भक्ति का प्रेरक दैवी ज्ञान ) का है वह पुस्तकीय ज्ञान का नहीं है .
- इन अहादीस से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि हर ज़माने में एक इमाम मौजूद होता है जिसको पहचानना वाजिब है और उसकी मारिफ़त हासिल न करना इंसान के जाहिलीयत और कुफ़्र के दौर में लौटने का सबब बनता है।
- क़ुरआन की हक़ीक़ी मारिफ़त हासिल करने के लिये हम को क़ुरआन के दामन में पनाह लेना होगी , उस से तालीम हासिल करनी होगी , उस की नसीहतों से पंद हासिल करनी होगी , मुशकिलात व गिरफ़्तारियों में उस से मदद मांगनी होगी , और इन सब के लिये बसीरत व आगाही के साथ क़ुरआन से पूछना होगा और उस से जवाब लेना होगा।
- पर जब दैवी ज्ञान ( मारिफ़त ) से ह्रदय को प्रकाशित रखने वाला साधू उनके समक्ष आ जाता है तो उनका प्रकाश विलुप्त हो जाता है - “ तारा मंडल बैसि करि , चंद बडाई खाई / उदय भय जब सूर का , स्यूं तारा छिपि जाई ” सच्चा पांडित्य हृदयस्थ दैवी ज्ञान से ही प्राप्त होता है जो प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम की दीप-शिखा से प्रकाशित रहता है .
- कुरआन के इन शब्दों पर गौर कीजिये तो स्पष्ट है कि यह एक सम्पूर्ण वाक्य है . इसका अर्थ यह है कि हमको अल्लाह रब्बुल आलमीन की वह मारिफ़त [अध्यात्म,अलौकिकता ,पहचान] प्राप्त नहीं हुई जो हमारे दिलो दिमाग को बदल दे, जो हमें अल्लाह के आगे झुकने पर विवश कर दे, जो खुद ईमानी तक़ाज़े [आस्था के दायित्व] के तिहत हमको ऐसा बना दे कि हम उस निज़ाम-ए-इबादत [उपासना की व्यवस्था] में शामिल हो जाएँ.