आस्ताँ का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- पिछली महफिल का सही शब्द था “आस्ताँ” और शेर कुछ यूँ था- दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाये क्यूँ इस शब्द की सबसे पहले पहचान की सीमा जी ने।
- जो मेरा आशियाँ नहीं होता आग लगती दुआँ नहीं होता वो तबस्सुम अगर न फ़रमाते गुलिस्ता ँ , गुलसिताँ नहीं होता मेरे सजदों का क्या ठिकाना था जो तेरा आस्ताँ नहीं होता चाँद बदली में, फूल गुलशन में मेरा साग़र कहाँ नहीं होता कैफ़ियात-ए-दिल-ओ-निगाह न पूछ होश अब दरमियाँ नहीं होता शुक्र-ए-परवरदिगार कर नासेह अब कोई इम्तेहाँ नहीं होता कुछ भी होता हयात का होना काश! ये रायगाँ नहीं होता 4.
- हम तो जैसे यहाँ के थे ही नहीं|धूप थे सायबाँ के थे ही नहीं|रास्ते कारवाँ के साथ रहे , मर्हले कारवाँ के थे ही नहीं|अब हमारा मकान किस का है,हम तो अपने मकाँ के थे ही नहीं|इन को आँधि में ही बिखरना था,बाल-ओ-पर यहाँ के थे ही नहीं|उस गली ने ये सुन के सब्र किया, जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं|हो तेरी ख़ाक-ए-आस्ताँ पे सलाम,हम तेरे आस्ताँ के थे ही नहीं|
- देख तो दिल कि जाँ से उठता है ये धुआँ सा कहाँ से उठता है गोर किस दिल जले की है ये फ़लक शोला इक सुबह याँ से उठता है खाना-ए-दिल से ज़ीनहार न था कोई ऎसे मकाँ से उठता है बैठने कौन दे है फिर उसको जो तेरे आस्ताँ से उठता है यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है कब ये तुझ नातवाँ से उठता है
- फिर कहीं जा के जबीं को ये शरफ़ मिलता है चूम लेता हूँ तेरे दर को नज़र से पहले सुर्ख़रू दारैन में गर तुझको होना है रशीद मुँह पे मलने के लिए ख़ाक ए मदीना चाहिए रशीद इक बार फिर उस आस्ताँ पर हाज़िरी होगी मगर अपने नसीबों में लिखा होना ज़रूरी है नज़र दौलत , दिल दरिया, मुक़द्दर का सिकन्दर है हक़ीक़त में तेरे दर का गदा शाहों से बेहतर है ' शरार ए तीशा' की ग़ज़लों में रिवायती अल्फ़ाज़ नहीं के बराबर हैं।
- फिर कहीं जा के जबीं को ये शरफ़ मिलता है चूम लेता हूँ तेरे दर को नज़र से पहले सुर्ख़रू दारैन में गर तुझको होना है रशीद मुँह पे मलने के लिए ख़ाक ए मदीना चाहिए रशीद इक बार फिर उस आस्ताँ पर हाज़िरी होगी मगर अपने नसीबों में लिखा होना ज़रूरी है नज़र दौलत , दिल दरिया , मुक़द्दर का सिकन्दर है हक़ीक़त में तेरे दर का गदा शाहों से बेहतर है ' शरार ए तीशा ' की ग़ज़लों में रिवायती अल्फ़ाज़ नहीं के बराबर हैं।
- लाहौल आशीष पाण्डेय लिक्खा हुआ कुछ और मिला है किताब में ईमान गड़बड़ी में है दिल के हिसाब मेंलिक्खा हुआ कुछ और मिला है किताब मेंदिल जिनमें ढूंढ़्ता था कभी अपनी दास्ताँवो सुख़ियाँ कहाँ हैं मुहब्बत के बाब में ! ऎ दिलेनवाज़ पहलू ही जब दिल के और हों,क्या ख़िलवतों में लुत्फ़ धरा क्या हिजाब में!उस आस्ताँ तक हमको बहारों में ले के जाओजिस पर कोई शहीद हुआ हो शबाब में!शमशेर बहादुर सिंह शमशेर बहादुर सिंह रस्सी में अटका अस्तित्व संदीप मुदगलदुनिया में जीने का अधिकार आखिर किसे है ?
- सीमा जी आपने ये सारे बेश-कीमती शेर पेश किए : हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख (लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी ) वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो (ग़ालिब) कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके कि जिंस-ए-इज्ज़-ओ-अक़ीदत से तुझ को शाद करे फ़रेब-ए-वादा-ए-फ़र्द पे अएतमाद् करे ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि तुझ को याद आये (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ) शरद जी, आपके ये दोनों शेर कमाल के हैं।
- हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख ( लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी ) वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो क़फ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो (ग़ालिब ) कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके कि जिंस-ए-इज्ज़-ओ-अक़ीदत से तुझ को शाद करे फ़रेब-ए-वादा-ए-फ़र्द पे अएतमाद् करे ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि तुझ को याद आये (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )