अकुलाई का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं , वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो , अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं , वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो , अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं , वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो , अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन.
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं , वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो , अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन .
- नाश से डरे हुए जंगल ने उनके भीतर रोप दीं अपनी सारी वनस्पतियां आग न लग जाए कहीं , वन्ध्या न हो जाए धरती की कोख सो , अकुलाई धरती ने शर्मो-हया का लिबास फेंक जिस्म पर उकेरा खजाने का नक्शा आँखों में लिख दिया पहाड़ों ने अपनी हर परत के नीचे गड़ा गुप्त ज्ञान कुबेर के कभी न भरने वाले रथ पर सवार हो आये वे उन्मत्त आये अबकी वसंत में उतार रहे गर्दन .
- जग से निंदित और उपेक्षित , होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! मैं अकंपित दीप...
- जग से निंदित और उपेक्षित , होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! मैं अकंपित दीप...
- जग से निंदित और उपेक्षित , होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! मैं अकंपित दीप...
- जग से निंदित और उपेक्षित , होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! मैं अकंपित दीप...
- जग से निंदित और उपेक्षित , होकर अपनों से भी पीड़ित, जब मानव ने कंपित कर से हा! अपनी ही चिता बनाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! सांध्य गगन में करते मृदु रव उड़ते जाते नीड़ों को खग, हाय! अकेली बिछुड़ रही मैं, कहकर जब कोकी चिल्लाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! झंझा के झोंकों में पड़कर, अटक गई थी नाव रेत पर, जब आँसू की नदी बहाकर नाविक ने निज नाव चलाई! तब मेरी पीड़ा अकुलाई! मैं अकंपित दीप...