क्षात्र-धर्म का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- क्षात्र-धर्म वीरों का है | हिंदी साहित्य का जिन्होंने अध्यन किया है , वे जानते है कि वीर रस का स्थाई भाव उतशाह है | अर्थात जिस काव्य में आदि से अंत तक निरंतर उतशाह बना रहे , उसी रचना को विर रस से परिपुर्र्ण कहा जायेगा |
- ५ १ ! इसीलिए साड़ी गीता में नारायण ने , उसको धर्म बताया ! उस सर्वश्रेष्ट धनुर्धर को , क्षत्रिय का क्षात्र-धर्म बताया ! ५ २ ! जब तक सत्य-असत्य , धर्मं-अधर्म का अस्तीत्व बना रहेगा ! इस ब्रहामंड की रक्षा के लिए हमारा भी क्षत्रित्व बना रहेगा !
- -शौर्य , तेज , धैर्य , युद्ध-प्रियता , दानशीलता और प्रजा के प्रति ईश्वरीय भाव के आदर्श माप-दंड- क्षात्र-धर्म रूपी कर्म को मैं स्वाभाविक रूप से आत्मसात करूँ | मेरी यह प्रार्थना स्वीकार हो ; - इस जीवन के लिए भी और भावी जीवन के लिए भी ; - सुख में भी दुःख में भी |
- |अतः आज जब सभी अर्जुन की तरह क्षात्र-धर्म स्वे पलायन आतुर है तो इस क्षात्र-धर्म के पुनः पालन के लिए हम सभी श्री गीता जी के योग , ज्ञान और निष्काम कर्म योग की तुरंत और अवश्यंभावी आवश्यकता है |तो हम सभी को अपने आपको अर्जुन के स्थान पर रख कर इस गीता का शोध पूर्ण अध्यन की आवश्यकता है
- |अतः आज जब सभी अर्जुन की तरह क्षात्र-धर्म स्वे पलायन आतुर है तो इस क्षात्र-धर्म के पुनः पालन के लिए हम सभी श्री गीता जी के योग , ज्ञान और निष्काम कर्म योग की तुरंत और अवश्यंभावी आवश्यकता है |तो हम सभी को अपने आपको अर्जुन के स्थान पर रख कर इस गीता का शोध पूर्ण अध्यन की आवश्यकता है
- |अतः आज जब सभी अर्जुन की तरह क्षात्र-धर्म स्वे पलायन आतुर है तो इस क्षात्र-धर्म के पुनः पालन के लिए हम सभी श्री गीता जी के योग , ज्ञान और निष्काम कर्म योग की तुरंत और अवश्यंभावी आवश्यकता है |तो हम सभी को अपने आपको अर्जुन के स्थान पर रख कर इस गीता का शोध पूर्ण अध्यन की आवश्यकता है
- |अतः आज जब सभी अर्जुन की तरह क्षात्र-धर्म स्वे पलायन आतुर है तो इस क्षात्र-धर्म के पुनः पालन के लिए हम सभी श्री गीता जी के योग , ज्ञान और निष्काम कर्म योग की तुरंत और अवश्यंभावी आवश्यकता है |तो हम सभी को अपने आपको अर्जुन के स्थान पर रख कर इस गीता का शोध पूर्ण अध्यन की आवश्यकता है
- शत-शुद्धि-बोध - सूक्ष्मतिसूक्ष्म मन का विवेक , जिनमें है क्षात्र-धर्म का घृत पूर्णाभिषेक , जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित , वे शर हो गए आज रण में श्रीहत , खण्डित ! देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक , लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक ; हत मन्त्र-पूत शर सम्वृत करतीं बार-बार , निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
- जिस भूमि के साहित्य में वीर रस का बाहुल्य है वहां के साहित्य में श्रृंगार रस का भी बाहुल्य देखा गया है | यह दोनों रस हमेशा साथ रहते है | यह कैसा विरोधाभास है ? सामान्य दृष्टि से श्रृंगार व वीरत्व विरोधी आचरण है किन्तु क्षात्र-धर्म की परम्परा में सुख भोग व कातर की पुकार पर सर्वस्व न्योछावर कर देने की परम्परा अक्षुण है |
- |अत : ऐसे लोगो के लिए इस दल के दरवाजे लगभग बंद ही करने होंगे |इस कार्य में समय थोडा ज्यादा लग सकता है किन्तु इसकी आज सर्वाधिक आवश्यकता है |सभी क्षत्रिय संघठनो एवं प्रबुद्ध क्षत्रिय इस पर विचार कर शीघ्र अति- शीघ्र इस प्रकार के दल के गठन कि प्रक्रिया शुरू करे ,तो यह एक सार्थक प्रयास होगा|“जय क्षात्र-धर्म ”“कुँवरानी निशा कँवर नरुका ”श्री क्षत्रिय वीर ज्योति राजऋषि ठाकुर श्री मदनसिंह जी,दांता