ख़ुद्दारी का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- देख कर आंखों से भी कुछ नहीं कहता कोई , लब सिले रहते हैं क्यों आज बदी के आगे॥ वाह! ग़म ज़माने का है जैसा भी हमें है मंज़ूर, हाथ फैलाएंगे हरगिज़ न ख़ुशी के आगे॥ सुबहान अल्लाह !क्या ख़ुद्दारी और अज़्म है
- हवा जब तक हवा है तब तलक ही दोस्ती रखना बने आंधी तो फिर उससे अदावत भी ज़रूरी है अगर हो जान को ख़तरा औ ख़ुद्दारी ख़तर में हो पलट कर वार कर देना हिफाज़त भी ज़रूरी है ये माना कि तअल्लुकात में कोई ग़रज़ ना हो मगर खुदगर्ज़ रिश्तों से सियासत भी ज़रूरी है
- साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपेक्षा और अवमानना को धता बताते हुए , सिर्फ मज़लूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, गंवई किसान, जनपक्षीय चिंतक-कवि, अदम गोंडवी, अपनी अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता और साहस के साथ, मज़लूमों और मुफ़लिसों की पीड़ा और आक्रोश को शब्दों में पिरोकर जन-द्रोहिओं को बेनकाब करके जन-विद्रोह के आह्वान की कवितायें लिखते हुए ख़ुद्दारी से जिए।
- पर आप नासिर खान की ख़ुद्दारी का क्या करेंगे जो अपने पिता का नाम इस्तेमाल किए बगैर ही काम और नाम कमाना चाहते हैं और यकीन मानिए वे कर भी रहे हैं मेरी और उनकी पहली बार बात तब हुई थी जब वे कभी आए ना जुदाई जैसे धारावाहिक में काम कर रहे थे और उनकी फिल्म आशिक रिलीज हो रही थी।
- उनकी एक अलामत यह भी है के इनके पास दीन में क़ुवत , नर्मी में षिद्दते एहतियात , यक़ीन में ईमान , इल्म के बारे में तमअ , हिल्म की मंज़िल में इल्म , मालदारी में मयानारवी , इबादत में ख़ुषू-ए-क़ल्ब , फ़ाक़े में ख़ुद्दारी , सख़्ितयों में सब्र , हलाल की तलब , हिदायत में निषात , लालच से परहेज़ जैसी तमाम बातें पाई जाती हैं।
- कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में ज़मीनें बिक गईं सारी ज़मींदारी बचाने में कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में कली का ख़ून कर देते हैं क़ब्रों की सजावट में मकानों को गिरा देते हैं फुलवारी बचाने में कोई मुश्किल नहीं है ताज उठाना पहन लेना मगर जानें चली जाती हैं सरदारी बचाने में बुलावा जब बड़े दरबार से आता है ऐ ' राना' तो फिर नाकाम हो जाते हैं दरबारी बचाने में
- जला है कोई और मैं आग लगाने लगा हूँ मरा है कोई और मैं गीत सुनाने लगा हूँ कवि हूँ कवि का धर्म निभाऊँगा ज़रूर दुनिया के ग़म को भुनाने लगा हूँ ऐसा नहीं कि पहले लड़ाई-झगड़े होते नहीं थे अब हर रंजिश को जामा नया पहनाने लगा हूँ ये कौम कौम नहीं , है दुश्मन हमारी कह कह के भाईचारा बढ़ाने लगा हूँ ख़ुद निकल आया हूँ मैं कोसों दूर वहाँ से अब उनको ख़ुद्दारी से जीना सीखाने लगा हूँ बात औरों की नहीं, कही अपनी है यारो फिर न कहना कि आईना दिखाने लगा हूँ सिएटल ।