मनसिज का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- जागल मनसिज मुदित नयान विद्यापति कह करू अवधान . ... बाला अंग लागल पञ्च बान ...... ये एक तरुणी की व्यथा है .... वो हैरान है अपने शारीरिक परिवर्तन से .... समझ नहीं आता क्या करे .... पहले पैर चंचल थे ... अब मन में भी हलचल है ...
- कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की ? उठी हुई-सी मही , व्योम कुछ झुका हुआ लगता है रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है , मानो , निखिल सृष्टि के प्राणॉ में कम्पन भरने को एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों .
- पूर्णतया चेतन हो बोले वे - “ कारण क्या , गुरुपुत्री असमय इस आने का ? सब कुछ कुशल तो है ? ” देखि फिर उसकी वह मदनातुर मुखमुद्रा - प्रणयाकुल साँसों का मन्मथ वह विकल ज्वार - नयनों में चपला का प्राणमथी आकर्षण उगते उरोजों में मनसिज का आमन्त्रण।
- देख कर जिसको है पुलकित अंग-अंग उठ रही मेरे मन मौज मनसिज की। ' ' / / / / / / / / / / / / / / / / / / राम और रावण के प्रथित कटक में कट-कट पड़ते विकट भट भूमि पै रुंड-मुंड-झुंड, भग्न तुंड से वितुंड के बहते थे निराधार धार में रुधिर की।
- उल्लेखनीय है कि कामदेव प्राणीमात्र की कोमल भावनाओं के देवता हैं और उन्हें मदन , मन्मथ , प्रद्युम्न , मीनकेतन , कन्दर्प , दर्पक , अनंग , काम , पञ्चशर , स्मर , शंबरारि , मनसिज ( मनोज ) , कुसुमेषु , अनन्यज , पुष्पधन्वा , रतिपति , मकरध्वज तथा विश्वकेतु के नाम से भी जाना जाता है।
- उल्लेखनीय है कि कामदेव प्राणीमात्र की कोमल भावनाओं के देवता हैं और उन्हें मदन , मन्मथ , प्रद्युम्न , मीनकेतन , कन्दर्प , दर्पक , अनंग , काम , पञ्चशर , स्मर , शंबरारि , मनसिज ( मनोज ) , कुसुमेषु , अनन्यज , पुष्पधन्वा , रतिपति , मकरध्वज तथा विश्वकेतु के नाम से भी जाना जाता है।
- अन्तः मुखी कर देती मैं तो मनसिज को खिन्नता से , ग्लानि से, हया से, अनुताप से, भक्ति में बदल देती कलुषित काम को रावण समान तुम्हें निज बन्धु मानती टल जाती स्यात् भय-प्रद भवितव्यता ! बाल-बृद्ध-अबला पै हाथ जो उठाता है, वह बलवान नहीं बल्कि बलहीन है, गर्व ने तुम्हारा ज्ञान उसी भाँति मेटा है लाज को मिटाता मद्यपान जिस भांति है।
- हित तिहारे करत मनसिज सकल सोभातीर॥ उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि मध्यकालीन हिन्दीभक्ति काव्य धारा आध्यात्मिक चेतना पर आधारित कोरा भाव-विलास ही नहीं है , उसमें कहीं वाच्यार्थ में तो कहीं प्रतीकार्थ में सामाजिक चिन्ताओं का सन्निवेश है और उसमें भी विशेषकर नारी जीवन की विषमताओं का , जो नारी-विमर्श की धारा को युगानुरूप निरन्तर गति देती हैं।
- अन्तः मुखी कर देती मैं तो मनसिज को खिन्नता से , ग्लानि से , हया से , अनुताप से , भक्ति में बदल देती कलुषित काम को रावण समान तुम्हें निज बन्धु मानती टल जाती स्यात् भय-प्रद भवितव्यता ! बाल-बृद्ध-अबला पै हाथ जो उठाता है , वह बलवान नहीं बल्कि बलहीन है , गर्व ने तुम्हारा ज्ञान उसी भाँति मेटा है लाज को मिटाता मद्यपान जिस भांति है।
- “रूप रश्मियों से नहलाकर मन की गाँठें खोल यौवन की वेदी पर अर्पित क्वाँरा हृदय अमोल प्राणों पर चुंबन अंकित हों जीवन में रस घोल ! ” “दीवारों के कान सजग हैं धीरे धीरे बोल!!” २. नभ के शब्द, धरा का सौरभ हमको छुआ करें दुग्ध स्नात हर मधुरजनी हो मिल कर दुआ करें चाँदी सी किरणें छू छू कर मनसिज युवा करें दीवारों के कान सजग हैं! होते! हुआ करें!!