विश्रान्त का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- रहस्यवाद . ??कामायनी की ये लाइन याद आ गयी.कौन तुम, संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक मधुर विश्रान्त और एकांत जगत का सुलझा हुआ रहस्य,एक करूणामय सुंदर मौन औैर चंचल मन का आलस्यस्मृति से लिखी है गलती हो तो क्षमा.
- सूती वस्त्र पहने है एक पोटली उसके पास है , वृद्ध को प्रणाम कर बैठता है ] वृद्ध -दीर्घायु हो वत्स ! आओ विश्रान्त हो ! उषा सोम ला ! [ इधर -उधर बैठे लोग पास खिसक आते हैं , एक तरुणी पात्र में सोम ला कर देती है .
- मैं तो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हूँ , मेरा मुझको नमस्कार है - ऐसा मुझे कब अनुभव होगा ? जो सबके भीतर है, सबके पास है, सबका आधार है, सबका प्यारा है, सबसे न्यारा है, ऐसे सच्चिदानन्द परमात्मा में मेरा मन विश्रान्त कब होगा ? - ऐसा सोचते-सोचते मन को विश्रान्ति की तरफ ले जाना।
- मौन क्लान्त विश्रान्त तरू ये भीगे - भीगे लम्बी सड़कों का दूर कहीं पर खो जाना तूफानों का दो हाथों के मध्य गुजरना कदमों का बरबस ही थमना , चलना फिर थमना अंगारों को मुठ्ठी में लेना और झुलसना पीड़ा को स्वर न देना पर बिलखना ताका करता है आखों में बैठा एक भी...
- मौन क्लान्त विश्रान्त तरू ये भीगे - भीगे लम्बी सड़कों का दूर कहीं पर खो जाना तूफानों का दो हाथों के मध्य गुजरना कदमों का बरबस ही थमना , चलना फिर थमना अंगारों को मुठ्ठी में लेना और झुलसना पीड़ा को स्वर न देना पर बिलखना ताका करता है आखों में बैठा एक भी
- * जो कुछ भला-बुरा संचा , अब झोली पलट दिखा दूँ , यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो, चाहे कोई और न समझे ,नहीं किसी की चिन्ता, मेरे अंतर के सच को विश्वेश, तुम्ही पहचानो ! * मेरे पाप-पुण्य,अनुराग-विराग , तृप्ति-तृष्णायें , लीन करो निज में चिर-व्याकुल मन, अशेष संवेदन ! अब ,स्वीकार करो कि अवांछित समझ झटक दो तुम भी , विषम यात्रा की परिणतियाँ ,ठाकुर, तुमको अर्पण ! ** - प्रतिभा.
- मैंने सुना , मालती एक बिलकुल अनैच्छिक , अनुभूतिहीन , नीरस , यन्त्रवत् - वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है , “ चार बज गये ” , मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो , वैसे ही , जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है , और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है ( किससे ! ) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया ...
- * जो कुछ भला-बुरा संचा , अब झोली पलट दिखा दूँ , यह विश्रान्त मनस्थिति आगे क्या हो तुम ही जानो , चाहे कोई और न समझे , नहीं किसी की चिन्ता , मेरे अंतर के सच को विश्वेश , तुम्ही पहचानो ! * मेरे पाप-पुण्य , अनुराग-विराग , तृप्ति-तृष्णायें , लीन करो निज में चिर-व्याकुल मन , अशेष संवेदन ! अब , स्वीकार करो कि अवांछित समझ झटक दो तुम भी , विषम यात्रा की परिणतियाँ , ठाकुर , तुमको अर्पण ! ** - प्रतिभा .