शफ़क़ का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- Tweet उस ने रूख़ से हटा के बालों को रास्ता दे दिया उजालों को जाते जाते जो मुड़ के देख लिया और उलझा दिया ख़यालों को एक हल्की सी मुस्कुराहट से उस ने हल कर दिया सवालों को मर गए हम तो देख लेना ‘ शफ़क़ ' याद आएंगे हुस्न वालों को -सय्यैद शफ़क़ शाह चिश्ती
- इन छवियों के रंग बिलकुल वैसे ही हैं मसलन शफ़क़ के रंग बिरँगे बादल जो इंसानी , मायावी दुनिया के समंदर में आहिस्ते आहिस्ते घुलते भी हैं और फिर , फिर वही रंग उस क्लांत जल राशियों से ताज़गी और नवीनता लिए पुन : शिखर के रँगीन बादलों की सुंदर छटा बनकर बिखर जाते हैं .
- अब्र के ऊपर नीचे देखा सुर्ख़ शफ़क़ की जेब टटोली झाँक कर देखा पार उफुक के कहीं नज़र न आई , फिर वो नज़्म मुझे ! आधी रात आवाज़ सुनी , तो उठ के देखा टाँग पे टाँग रखे , आकाश में चाँद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के दुनिया को अपनी कहके नज़्म सुनाने बैठा था।
- शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम शबे-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराए कोई पुकारो कि इक उम्र होने आई है फ़लक को क़ाफ़ला-ए-रोज़-ओ-शाम ठहराए यह ज़िद है यादे-हरीफ़ाने-बादा-पैमाँ की कि शब को चाँद न निकले न दिन को अब्र आए सबा ने फिर दरे-ज़िंदाँ पे आके दस्तक दी सहर क़रीब है , दिल से कहो , न घबराए
- महक उठा है आँगन इस ख़बर सेवो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बामदरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था उतारे कौन अब दीवार पर से गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से उसे देखे ज़माने भर का ये चाँदहमारी चाँदनी छाए तो तरसे मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से . ..!
- वो गुजरी हुई शाम है याद अब तक वो है मेरे सीने में आबाद अब तक दिन आहिस्ता-आहिस्ता ढलने लगा था फजाओं में सोना पिघलने लगा था धुंधलके की परछाइयाँ नाचती थीं हर इक सिम्त अँगड़ाइयाँ नाच ती थीं उफुक पर किरन ख्वाब सा बुन रही थी दुपट्टे को अपने शफ़क़ चुन रही थी तिरी रूह-ओ-दिल पर थे बादल से छाए खड़ी थी मिरे पास गर्दन झुकाए मगर नकहतें अपनी बरसा रही थी तिरे पैरहन से महक आ रही थी
- आतिश जवान था तो कयामत लहू की थी ज़ख्मी हुआ बदन तो वतन याद आ गया अपनी गिरह में एक रिवायत लहू की थी ख़ंजर चला के मुझ पे बहुत ग़म-ज़दा हुआ भाई के हर सुलूक में शिद्दत लहू की थी कोह-ए-गिराँ के सामने शीशे की क्या बिसात अहद-ए-जुनूँ में सारी शरारत लहू की थी रूख़्सार ओ चश्म ओ लब गुल ओ सहबा शफ़क़ हिना दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में तिजारत लहू की थी ‘ ख़ालिदÓ हर एक ग़म में बराबर का शरीक था सारे जहाँ के बीच रफ़ाकत लहू की थी
- एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी नेयहीं पड़ी थी बालकनी मेंगोल तिपाही के ऊपर थीव्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थीनज़्म के हल्के हल्के सिप मैंघोल रहा था होठों मेंशायद कोई फोन आया थाअन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थीअब्र के ऊपर नीचे देखासूट शफ़क़ की ज़ेब टटोलीझांक के देखा पार उफ़क़ केकहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझेआधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखाटांग पे टांग रख के आकाश मेंचांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ केदुनिया भर को अपनी कह केनज़्म सुनाने बैठा था-गुलज़ार
- अंधेरा , अजनबी , असर , आस , आह , इल्ज़ाम , उम्मीद , उफ़क़ , ख़बर , ख़ुशी , गली , गुल , गुलशन , गुलाबी , घर , चेहरा , डगर , तन्हा , दरवाज़ा , दिल , दुआ , दुनिया , नज़र , पयाम , प्यास , बला , बारिश , मंदिर , मंज़र , मखमली , मस्जिद , मुद्दत , रहम , रोशनी , रोज़ , शब , शाम , शायद , शुआ , शफ़क़ , सदा , सहर , सोहबत , ज़मीन , ज़िन्दगी , फ़ज़िर ,
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