अक्षय आनंद वाक्य
उच्चारण: [ akesy aanend ]
उदाहरण वाक्य
- इन सब शंकाओं का, जो अर्जुन के मन में उठ सकती हैं, श्रीकृष्ण अगले श्लोक में उत्तर देते हैं, जब वे उसे अक्षय आनंद की प्राप्ति, जो बहिरंग सुख से, परिस्थितिजन्य सुखों से भी बढ़कर बताते हैं।
- इसीलिए वह इक्कीसवें श्लोक में कह उठते हैं कि जिसका मन बाह्य विषयों में अनासक्त है, वह आत्मस्थित आनंद को प्राप्त करता है तथा जिसका मन ब्रह्म के साथ पूरी तरह तद्रूप हो गया है, वह अक्षय आनंद की प्राप्ति करता है, सदैव उसी में मग्र-प्रसन्न रहता है।
- इसी का उत्तरार्द्ध है स्वयं को ब्रह्म में स्थित करना, ब्रह्मज्ञान लाभ प्राप्त कर उसी में निरंतर रमण करते रहना (ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेणाधिगच्छति-श्लोक ३ ९, अध्याय ४) आत्मज्ञान को प्राप्त होते ही नित्य सुख की प्राप्ति, शांति व अक्षय आनंद सुनिश्चित उपलब्धियों के रूप में हस्तगत हो जाते हैं।
- यदि हमें अक्षय आनंद की प्राप्ति करनी है, तो हमें जानना होगा कि दुःखों के हेतु-सुखरूप लगने वाले इंद्रिय भोगों से हम दूर चलें ; क्योंकि वे अनित्य हैं, क्षणिक हैं और यदि हम विवेकवान हैं, तो उनमें रमण करने के स्थान पर हम प्रभु की बात मानते हुए स्वयं को उनके चरणों में नियोजित कर देंगे (न तेषु रमते बुधः-५ / २२) ।
- इस विराटरूप को देखना हर किसी के लिए संभव है | अखिल विश्व ब्रहमांड में परमात्मा कि विशालकाय मूर्ति देखना और उसके अंतर्गत-उसके अंग-प्रत्यगों के रूप में समस्त पदार्थें को देखने, प्रत्येक स्थान को ईश्वर से ओत-प्रोत देखने की भावना करने से भगवद बुद्धि जाग्रत होती है और सर्वत्र प्रभु की सत्ता से व्याप्त होने का सुद्रढ़ विश्वास निष्पाप होना इतना बड़ा लाभ है कि उसके फलस्वरूप सब प्रकार के दू ;ख के अभाव का नाम है-आनंद | विराट दर्शन के फलस्वरूप निष्पाप हुआ व्यक्ति सदा अक्षय आनंद का उपभोग करता है |