तत्त्वमसि वाक्य
उच्चारण: [ tettevmesi ]
उदाहरण वाक्य
- स्वयं का विकसित रूप ही भगवान् है हमारा विकसित रूप जो है-' शिवोहं ' ' सच्चिदानंदोहं ' ' तत्त्वमसि ' ' अयमात्माब्रह्म ' ' प्रज्ञानंब्रह्म ' है ।।
- ' इदं सर्व तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो '-आरुणि के अद्वैतवाद का यह महनीय मंत्र है (छां. ६. ११, १ २) ।
- इसी कारण ब्रह्म को ‘ तत्त्वमसि ' कहा गया. ब्रह्म देह में रहते हुए भी उससे मुक्त है केवल आत्मा द्वारा उसका अनुभव होता है, वह संपूर्ण सृष्टि में होते हुए भी उससे दूर है.
- तत्त्वमसि, प्रज्ञानं ब्रह्म, चिदानंदोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् सोऽहम्-ये सारे के सारे जितने भी वेदांत के महावाक्य हैं, ये सिर्फ यह बताते है कि आपको भगवान की तलाश में बाहर जाने की और झख मारने को कोई जरूरत नहीं है।
- शुकरहस्योपनिषद में इस ॐ तत्त्वमसि महावाक्य को स्पष्ट करते हुए भगवन कहते हैं कि ब्रह्म तुम्हीं हो, सृष्टि पूर्व, द्वैत रहित, नाम, रूप से रहित, केवल ब्रह्म ही विराजमान था और आज भी वही है आदि से अंत उसी की सत्ता उपस्थित रही है.
- यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ३ ॥ जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए ' तत्त्वमसि ' का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥ ३ ॥
- वैराग्य सुदृढ़ हो जाता है, सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है, भोगों की तृष्णा नष्ट हो जाती है, पाँचों विषय नीरस भासने लगते हैं, शास्त्रों के ' तत्त्वमसि ' आदि महावाक्यों का यथार्थ बोध हो जाता है, आनन्दस्वरुप आत्मा की अपरोक्षानुभूति हो जाती है, ह्रदय में आत्मोदय की पूर्ण भावना विकसित हो जाती है तब विवेकी पुरुष एकमात्र आत्मानन्द मेंरममाण रहता है और अन्य भोग-वैभव, धन-सम्पत्ति को जूठी पत्तल की तरह तुच्छ समझकर उनसे उपराम हो जाता है ।
- प्रति वैराग्य सुदृढ़ हो जाता है, सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है, भोगों की तृष्णा नष्ट हो जाती है, पाँचों विषय नीरस भासने लगते हैं, शास्त्रों के ' तत्त्वमसि ' आदि महावाक्यों का यथार्थ बोध हो जाता है, आनन्दस्वरुप आत्मा की अपरोक्षानुभूति हो जाती है, ह्रदय में आत्मोदय की पूर्ण भावना विकसित हो जाती है तब विवेकी पुरुष एकमात्र आत्मानन्द मेंरममाण रहता है और अन्य भोग-वैभव, धन-सम्पत्ति को जूठी पत्तल की तरह तुच्छ समझकर उनसे उपराम हो जाता है ।
- गुरु आदि के साथ विचार कर पदार्थ का परिशोधन होने पर पहले स्थूल आदि शरीरों में तादात्म्याध्यास से जो आत्मसादृश्य था, वह जिसका निवृत्त हो गया है, उस अधिकारी पुरुष को ' तत्त्वमसि ' आदि वाक्यों के अर्थ के विचार से तत्त्व के ज्ञात होने पर, मनन द्वारा असंभावना और विपरीत भावनाशून्य बुद्धि से ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर मोह के नष्ट होने एवं अति निविड़ भ्रम ज्ञान के विलीन होने पर यह जगत् का भ्रमण मनोविनोद (आनन्दसाधन) ही है, दुःखकारी नहीं है।।
- नहीं तो यह कैसे होता कि जिस देश ने ‘ वसुधैवकुटुम्बकम् ' का आदर्श संसार के सामने रखा, उसी ने जात-पाँत की व्यवस्था भी दी-और ऐसे विकट रूप में कि वह इस्लाम और ईसाइयत पर भी हावी हो जाए? नये ईसाइयों को छूआछूत बरतते देखकर हमने एक बार आश्चर्य प्रकट किया था तो उन्होंने कहा था, “ इसाई हो गये तो क्या हुआ, धर्म थोड़े ही छोड़ दिया है? ” जिसने कहा ‘ तत्त्वमसि ', ‘ शिवोहम् ', ‘ अहं ब्रह्मास्मि ', उसी ने तैंतीस कोटि देवता भी गिना दिये?