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वाजसनेयी संहिता वाक्य

उच्चारण: [ vaajesneyi senhitaa ]

उदाहरण वाक्य

  1. शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता, महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन बिहार की जानकारी मिलती है ।
  2. शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण, गौपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, कौशितकी आरण्यक, सांख्यायन आरण्यक, वाजसनेयी संहिता और महाभारत इत्यादि में वर्णित घटनाओं से उत्तर वैदिककालीन गंगा घाटी की जानकारी मिलती है।
  3. अर्थवेद [११/९/१७] में “धर्म ” शब्द का अर्थ “धार्मिक आचार द्वारा मिलाने वाला पुन्य” है, वाजसनेयी संहिता [२-३] में “ध्रुवेण धर्मणा” अर्थ में “धर्म” शब्द है, छान्दोग्य उपनिषद [२/२३] में “चार आश्रम के विशिष्ट कर्तव्य” इस अर्थ में “धर्म” शब्द आया हुआ है!
  4. प्राचीन भारत में गोहत्य एवं गोमांसाहार पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है “ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए”-धर्मशास्त्र विचार, मराठी, पृ 180)
  5. पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है ' ' ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी ' पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस् था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए ''-धर्मशास् त्र विचार, मराठी, पृ 180)
  6. सूर्य देव के वरदान से वह शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी संहिता के आचार्य हुए तथा इनका दूसरा नाम वाजसनेय हुआ और मध्य दिन के समय ज्ञान प्राप्त होने से ‘ माध्यन्दिन ' शाखा का उदय हुआ एवं शुक्ल यजुर्वेद संहिता के मुख्य मन्त्र द्रष्टा ऋषि याज्ञवल्क्य हैं अत: शुक्ल यजुर्वेद हमें महर्षि याज्ञवल्क्य जी द्वारा प्राप्त हुआ है.
  7. ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘ जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं... । ‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है।
  8. ' वाजसनेयी संहिता [100] में प्रसिद्ध मंत्र यह है-“ हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए ”, जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।
  9. पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है “ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए”-धर्मशास्त्र विचार, मराठी, पृ 180) महाभारत में गौ गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते-अनुशासन पर्व, 88/5 अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है मनुस्मृति में उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्यजमृगा भक्ष्याः-मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्य ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात खाने योग्य है
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