विदेहमुक्ति वाक्य
उच्चारण: [ videhemuketi ]
उदाहरण वाक्य
- यदि कहिए कि यह सन्देह ही नहीं बन सकता है, सो नहीं कह सकते, क्योंकि आत्यान्तिक दुःख विनाश से उपलक्षित (युक्त) निरतिशय स्वप्रकाशमात्र शेष रहना ही विदेहमुक्ति है और वही ज्ञान का फल है।
- यहाँ पर सदेहमुक्ति की और विदेहमुक्ति की एकता उपमेय है, उनके सादृश्य के लिए कथित सस्पन्द और निःस्पन्द वायु की एकता उपमान है उसका विवक्षित सारभूत अंश उपमेय के सादृश्य को उल्लसित करने वाला केवली भाव है, परिस्पन्द के त्याग से केवल एक अंश से-ऐक्यसादृश्यरूप से-उपमेयको उपमा का विषय समझो।
- अभ्यास से परमात्मा का अलौकिक मानस तथा विशेषगुणमुक्त आत्मा का लौकिक मानस तत्व साक्षात्कार प्राप्त कर न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र में कहे गए क्रम से पहले जीवनमुक्ति प्राप्त करता है, अर्थात् जीवन काल में ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसके बाद प्रारब्ध कर्मों का भोग द्वारा अवसान हो जाने पर वर्तमान शरीर से संबंध तोड़कर विदेहमुक्ति को प्राप्त करता है।
- श्री शुकदेव आदि शम, दम आदि साधनों से परिपूर्ण थे, अतएव उन्हें श्रवण का फल ज्ञान तदुपरान्त विदेहमुक्ति प्राप्त हुई, आधुनिक पुरुष उक्त साधनों का सम्पादन करने में समर्थ नहीं है, अतः उन्हें श्रवण का फल कैसे प्राप्त होगा? ऐसी शंका होने पर संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो पुरुष के प्रयत्न से साध्य न हो, यह कहते हैं।
- अनंतर मनन, निदिध्यासन एवं आदरपूर्वक दीर्घकालव्यापी अविच्छिन्न अभ्यास से परमात्मा का अलौकिक मानस तथा विशेषगुणमुक्त आत्मा का लौकिक मानस तत्व साक्षात्कार प्राप्त कर न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र में कहे गए क्रम से पहले जीवनमुक्ति प्राप्त करता है, अर्थात् जीवन काल में ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसके बाद प्रारब्ध कर्मों का भोग द्वारा अवसान हो जाने पर वर्तमान शरीर से संबंध तोड़कर विदेहमुक्ति को प्राप्त करता है।
- अनंतर मनन, निदिध्यासन एवं आदरपूर्वक दीर्घकालव्यापी अविच्छिन्न अभ्यास से परमात्मा का अलौकिक मानस तथा विशेषगुणमुक्त आत्मा का लौकिक मानस तत्व साक्षात्कार प्राप्त कर न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र में कहे गए क्रम से पहले जीवनमुक्ति प्राप्त करता है, अर्थात् जीवन काल में ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसके बाद प्रारब्ध कर्मों का भोग द्वारा अवसान हो जाने पर वर्तमान शरीर से संबंध तोड़कर विदेहमुक्ति को प्राप्त करता है।
- जैसे यह चित्रलिखित बाघ है, सचमुच नहीं है, ऐसा ज्ञान हो जाने पर बाघ का डर नहीं रहता प्रत्युत उसे देखने में आनन्द ही आता है, वैसे ही अज्ञान के नष्ट हो जाने पर यह दृश्यमान व्यवहार कौतूहल का ही कारण होता है, अनर्थ का हेतु नहीं होता, इसलिए जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कोई अन्तर नहीं है, इस प्रकार पूर्व शंका का समाधान करके प्रस्तुत आत्मतत्त्व का विस्तार से उपदेश देने के लिए पहले मूल की दृढ़ता के लिए पुरुषार्थ का समर्थन करते हैं।