बहुत दिन बीते वाक्य
उच्चारण: [ bhut din bit ]
उदाहरण वाक्य
- दशरथ सम जो तनु तजो, “फूलपुरी” पद टेक ॥ जो पुज्य श्री दशरथ जी के समान छ:बार श्रीराम का शुभ नाम लेकर और छ:बार केवल “र” बोलकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर देते हैं:-“हा रघुनंदन प्राणपिरीते, तुम्हबिन जियत बहुत दिन बीते ।
- १९६२-१९६३ की रचनाएँ / हरविंशराय बच्चन दो चट्टानें / हरिवंशराय बच्चन (1965) बहुत दिन बीते / हरिवंशराय बच्चन (1967) कटती प्रतिमाओं की आवाज / हरिवंशराय बच्चन (1968) उभरते प्रतिमानों के रूप / हरिवंशराय बच्चन (1969) जाल समेटा / हरिवंशराय बच्चन (1973)
- बहुत दिन बीते जलावतन हुई जियीं की मरी-कुछ पता नही | ऐसी पंक्तियाँ वो कलम की चितेरी ही लिख सकती थीं...कविता का एक एक शब्द मन को झिंझोड़ता हुआ.....बहुत बहुत शुक्रिया उनकी इस बेहतरीन रचना से रु-बी-रु करवाने के लिए
- एक घटना तेरी यादें बहुत दिन बीते जलावतन हुईं जीतीं हैं या मर गयीं-कुछ पता नहीं सिर्फ एक बार एक घटना हुई थी ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी और इतनी स्तब्ध थी कि पत्ता भी हिले तो बरसों के कान चौंक जाते..
- एक घटना तेरी यादें बहुत दिन बीते जलावतन हुईं जीतीं हैं या मर गयीं-कुछ पता नहीं सिर्फ एक बार एक घटना हुई थी ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी और इतनी स्तब्ध थी कि पत्ता भी हिले तो बरसों के कान चौंक जाते..
- भोर भये नित सूरज उगे साँझ पडे ढल जाये ऐसे ही मेरी आस बंधे और बंध बंध कर मिट जाय खबर मोरी ना लीन्हो रे बहुत दिन बीते..बीते रे बहुत दिन बीते........ ये सभी गीत मानव प्रेम, भक्ति और सौंदर्य रस की अभिव...
- भोर भये नित सूरज उगे साँझ पडे ढल जाये ऐसे ही मेरी आस बंधे और बंध बंध कर मिट जाय खबर मोरी ना लीन्हो रे बहुत दिन बीते..बीते रे बहुत दिन बीते........ ये सभी गीत मानव प्रेम, भक्ति और सौंदर्य रस की अभिव...
- बहुत दिन बीते जलावतन हुई जियीं की मरी-कुछ पता नही | और इतनी स्तब्ध थी कि पत्ता भी हिले तो बरसों के कान चौंकते | अंधेरे को जैसे एक गर्भ पीड़ा थी ज्यों अपने आवेश को दांतों में दबाता यह मेरे तर्क, मेरे आका के हुक्म हैं!
- बहुत दिन बीते जलावतन हुई जियीं की मरी-कुछ पता नही | सिर्फ़ एक बार-एक घटना घटी ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी और इतनी स्तब्ध थी कि पत्ता भी हिले तो बरसों के कान चौंकते | फ़िर तीन बार लगा जैसे कोई छाती का द्वार खटखटाता और दबे पांव छत पर
- शक्ति क़ी प्रतिनिधि जननी-माँ को समर्पित अब्दुला दीवाना बहुत दिन बीते मैं नींद में खोई थी ना जागी थी और ना मैं सोई थी कितनों को देखा मैंने, पलकों के अधर तले पर ना पाया मैंने अपने जो संग चले बहुत दिन बीते मैं खील-खील हो रोई थी न जाने किस बगिया में सोई थी