मधुसूदन सरस्वती वाक्य
उच्चारण: [ medhusuden sersevti ]
उदाहरण वाक्य
- मधुसूदन सरस्वती का कथन है कि रज अथवा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चाहिए कि अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है।
- इस पर सिद्धान्तबिन्दु की रचना कर मधुसूदन सरस्वती जी ने न केवल मूल ग्रन्थ को स्पष्ट किया है अपितु उसका आधार लेकर चिन्तामणि से प्रारमभ हुई न्याय की शैली को अपनाते हुए नववेदान्त की
- इस पर सिद्धान्तबिन्दु की रचना कर मधुसूदन सरस्वती जी ने न केवल मूल ग्रन्थ को स्पष्ट किया है अपितु उसका आधार लेकर चिन्तामणि से प्रारमभ हुई न्याय की शैली को अपनाते हुए नववेदान्त की नींव डाली है।
- मधुसूदन सरस्वती “ इन्द्रविजय ” नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था ।
- मधुसूदन सरस्वती के ‘ भक्तिरसायन ' नामक ग्रन्थ में भक्ति के आलौकिक महत्त्व और रसत्व का विशद निरूपण करते हुए उसे एक ओर दसवाँ रस बताया गया है, तो दूसरी ओर सब रसों से श्रेष्ठ भी माना गया है।
- विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती ‘ इन्द्रविजय ‘ नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त के प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था।
- गोस्वामी जी का सम्मान उनके जीवन-काल में इतना व्यापक हुआ कि अब्दुर्रहीम खानखाना एवं टोडरमल जैसे अकबरी दरबार के नवरत्न, मधुसूदन सरस्वती जैसे अग्रगण्य शैव साधक, नाभादास जैसे भक्त कवि आदि अनेक समसामयिक विभूतियों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
- -नारद-भक्तिसूत्र, 2 ” style = color: blue > * / balloon > * मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति का लक्षण करते हुए बतलाया है कि भगवद्धर्म के कारण द्रुत चित्त की परमेश्वर के प्रति धारावाहिक वृत्ति को भक्ति कहते हैं।
- मुगल सम्राट् अकबर ने हिंदू धर्म की प्राचीन परंपराओं के प्रति जो उदारता और अनुराग दिखाया, उसकी प्रेरणा पाकर भारतीय संस्कृति की धारा, जो बीच के काल में कुछ क्षीण हो चली थी, पुन: वेगवती हो गई और उसने तुलसीदास, मधुसूदन सरस्वती और पंडितराज जगन्नाथ जैसे महाकवियों और पंडितों को जन्म दिया एवं काशी पुन: अपने प्राचीन गौरव की अधिकारिणी बन गई।
- की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है।