नारायण सुर्वे वाक्य
उच्चारण: [ naaraayen surev ]
उदाहरण वाक्य
- सन 2010 मे मराठी के बडे कवि नारायणगंगाराम सुर्वे का निधन हो गया अपने कठिन समय को जीते हुए नारायण सुर्वे की कविताका नामदेव ढसाल द्वारा किया हिन्दी अनुवाद देखें-कविता का शीर्षक है-मुश्किल होताजा रहा है-
- संस्मरण कृष्णाबाई नारायण सुर्वे प्रस्तुति और मराठी से अनुवादः भारत भूषण तिवारी कामगार कवि के नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी जनकवि नारायण सुर्वे (15 अक्टूबर, 1926-16 अगस्त, 2010) का लंबी बीमारी के बाद ठाणे में निधन हो गया ।
- संस्मरण कृष्णाबाई नारायण सुर्वे प्रस्तुति और मराठी से अनुवादः भारत भूषण तिवारी कामगार कवि के नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी जनकवि नारायण सुर्वे (15 अक्टूबर, 1926-16 अगस्त, 2010) का लंबी बीमारी के बाद ठाणे में निधन हो गया ।
- उर्दू मरकज़ के अध्यक्ष जुबैर आज़मी ने कहा कि एक जमाना था कि जब छोटी-छोटी महफिलें यहां जुटा करतीं थीं जिसमें हिन्दी उर्दू की नामी हस्तियां कैफ़ी आज़मी, मज़रुह सुल्तानपुरी, कमलेश्वर, नारायण सुर्वे आदि शिरकत करते थे।
- प्रश्न उठता है कि बहुत विपुल लेखन न करने के बावजूद नारायण सुर्वे आखिर शोहरत की बुलंदियों पर किस तरह पहुंच सके, जिनकी रचनाएं प्रबुद्धों के जलसों से लेकर किसानों, मजदूरों के सम्मेलनों में उत्साह से सुनी जाती थीं।
- डॉ. रामचन्द्र शर्मा और श्री नारायण सुर्वे आदि ने ‘ दलित ' शब्द को एक विस्तृत रूप करते हुए पिछड़ी जातियों के साथ-साथ उन सभी को दलित माना है, जो किसी भी प्रकार से पीड़ित या शोषित है.
- उर्दू मरकज़ के अध्यक्ष जुबैर आज़मी ने कहा कि एक जमाना था कि जब छोटी-छोटी महफिलें नागपाड़ा-मदनपुरा इलाके में जुटा करतीं थीं जिसमें हिन्दी उर्दू की नामी हस्तियां कैफ़ी आज़मी, मज़रुह सुल्तानपुरी, कमलेश्वर, नारायण सुर्वे आदि शिरकत करते थे।
- कामगार, मेहनतकशों की आबादी की बस्तियां ही अपने विश्वविद्यालय हैं-इस बात को डंके की चोट पर कहने वाले नारायण सुर्वे की कविताओं में बंबई के फुटपाथ ही असली जीवनशाला हैं, यह बात मराठी लेखकों के कान में पहली बार गूंजी।
- हमारे अपने देश में काज़ी नज़रूल, निराला, मुक्तिबोध, शंख घोष, वरवर राव, धूमिल, पाश, नारायण सुर्वे या नामदेव ढसाल कविता से क्या काम लेते रहे यह भी श्रीयुत राजेन्द्र यादव की चिन्ता का विषय नहीं है.
- दरअसल, बाद के दिनों में दलित रचनाकर्म ने जिस काम को व्यापक पैमाने पर किया, जिस तरह उसने मराठी साहित्य के वर्ण समाज तक सीमित ‘ सदाशिवपेठी ' स्वरूप को चुनौती दी, उसका आगाज नारायण सुर्वे ने पचास के दशक में किया।