समन्तभद्र वाक्य
उच्चारण: [ semnetbhedr ]
उदाहरण वाक्य
- अकलंक ने उमास्वाति के ' तत्वार्थसूत्र ' तथा समन्तभद्र की ' आप्तमीमांसा ' पर क्रमश: ' तत्वर्थराजवार्तिक ' तथा ' अष्टशती ' नामक टीका लिखी है।
- जैन न्याय में प्रमाण को परिभाषित करते हुए सर्वप्रथम समन्तभद्र ने कहा है कि यह ज्ञान प्रमाण हो सकता है, जो स्व और पर का अवभासक हो।
- इसी समय जैन परम्परा में दक्षिण भारत में महामनीषी समन्तभद्र का उदय हुआ, जो उनकी उपलब्ध कृतियों से प्रतिभाशाली और तेजस्वी पांडित्य से युक्त प्रतीत होते हैं।
- इस तरह समन्तभद्र ने भाव और अभाव के पक्षों में होनेवाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को सम्यक बतलाया तथा उन्हें वस्तु के अपने वास्तविक धर्म निरूपित किया।
- परन्तु समन्तभद्र के काल में उसकी आवश्यकता बढ़ गई, क्योंकि ई॰ 2 री, 3 री शताब्दी का समय भारतवर्ष के दार्शनिक इतिहास में अपूर्व क्रांति का था।
- आगे यहाँ भी भाव और अभाव की तरह अद्वैत और द्वैत में तीसरे आदि 5 भंगों की और योजना करके सप्तभंगनय से वस्तु को समन्तभद्र ने अनेकान्त सिद्ध किया है।
- इसी से समन्तभद्र ने इन प्रचलित वादों का स्पष्ट और कुछ विस्तार से कथन करते हुए उन वादों में दोष प्रदर्शित किये तथा उन सभी को स्याद्वाद द्वारा स्वीकार किया।
- समन्तभद्र के इस कार्य को उनके उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यपाद देवनन्दि, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों एवं तार्किकों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं द्वारा अग्रसारित किया।
- आचार्य समन्तभद्र, अकलंक, यशोविजय के सिवाय सिद्धसेन *, विद्यानंद * और हरिभद्र जैसे दार्शनिकों एवं तार्किकों ने भी स्याद्वाददर्शन और स्याद्वाद नयाय को जैन दर्शन और जैन न्याय प्रतिपादित किया है।
- समन्तभद्र की ' आप्त-मीमांसा ', जिसे ' स्याद्वाद-मीमांसा ' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है।