अब्धि का अर्थ
[ abedhi ]
अब्धि उदाहरण वाक्य
परिभाषा
संज्ञा- खारे पानी की वह विशाल राशि जो चारों ओर से पृथ्वी के स्थल भाग से घिरी हुई हो:"समुद्र रत्नों की खान है"
पर्याय: समुद्र, सागर, सिंधु, सिन्धु, अंबुधि, अम्बुधि, उदधि, पयोधि, तोयनिधि, पयोनिधि, वारिधि, जलधि, जलनिधि, समुन्दर, समुंदर, समन्दर, समंदर, रत्नाकर, तिमिकोश, वारिनिधि, अपांनाथ, अपांनिधि, अपांपति, जलपति, वारींद्र, वारीन्द्र, वारिराशि, वारीश, पाथोधि, मगरधर, अबिंधन, अबिन्धन, नदीश, नदीपति, नदीकांत, नदीकान्त, नदराज, नदीन, तोयधि, नदीभल्लातक, झषनिकेत, तोयराज, तोयराशि, पाथोनिधि, अमीनिधि, पाथि, शुद्धोद, पयोधर, तीवर, तरंत, तरन्त, जलेश, जलेश्वर, अर्णव, अवधिमान, अवारपार, रत्नगर्भ, लक्ष्मी-तात, तोयालय, अविष, परांगव, मकरांक, मकरध्वज, मकरालय, मकरावास, यादईश, पाथनाथ, पाथनिधि, वरुणालय, वरुणवास, अधिरथी, यादःपति, वरुणोद, सलिलपति, सलिलराज, सुदामा, सुदाम, सुदामन - छः और एक को जोड़ने पर प्राप्त संख्या:"तीन और चार सात होता है"
पर्याय: सात, सप्त, ७, 7, VII
उदाहरण वाक्य
अधिक: आगे- समता-क्षमता के अब्धि आप , ममता-करूणा के आगर थे।
- तेज में दिवाकर आहलाद में सुधाकर , गंभीरता के अब्धि अथाह कहलाये थे।।
- सुधा की अब्धि तुम , सुख-माणिक भण्डार डूब डूब चुनता रहूँ, भरूँ हृदय आगार सुबह, तुम्हारी ही हँसी,
- सोम-रवि के सहित , स्वर्ग की छवि अमित, आज यमुना किनारे उतारी गई॥नाचने-सी लगी यह रसा रास में, अब्धि में दूर तक पूर आने लगा।
- वह दिव्य अस्त्रों का प्रयोक्ता , महायोधा था , कितनी ही बार झेला उसने स्व वक्ष पै महा वज्र शक्र का , औ वक्र चक्र विष्णुका , किन्तु हुआ नहीं कभी क्षुब्ध वह अब्धि सा।
- कौन आँके मोल उस के शोध का मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ? जल जहाँ है नहीं क्या वह अब्धि है ? रेत क्या उपलब्धि है ?
- शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ , तारकों में सूर्य सा, वह दिव्य अस्त्रों का प्रयोक्ता, महायोधा था, कितनी ही बार झेला उसने स्व वक्ष पै महा वज्र शक्र का, औ वक्र चक्र विष्णुका, किन्तु हुआ नहीं कभी क्षुब्ध वह अब्धि सा।
- प्रीति हिया ऐसी जगी , भागा भेद-विवेक हर अमूर्त औ' मूर्त में, रुप दृष्टिगत एक रामायण, गीता तुम्ही, तुम ही वेद, पुराण पढूँ, गुनूँ आठो पहर, तुममें ही निर्वाण नेह-सुधा की अब्धि तुम, सुख-माणिक भण्डार डूब डूब चुनता रहूँ, भरूँ हृदय आगार सुबह, तुम्हारी ही हँसी,...
- प्रीति हिया ऐसी जगी , भागा भेद-विवेक हर अमूर्त औ' मूर्त में, रुप दृष्टिगत एक रामायण, गीता तुम्ही, तुम ही वेद, पुराण पढूँ, गुनूँ आठो पहर, तुममें ही निर्वाण नेह-सुधा की अब्धि तुम, सुख-माणिक भण्डार डूब डूब चुनता रहूँ, भरूँ हृदय आगार सुबह, तुम्हारी ही हँसी, दुपहर, मधुरी बैन साँझ तुम्हारी प्रीति है, आलिंगन है रैन पुष्प, तुम्हारी स्निग्धता, आभा पाया भोर
- अंतरिक्ष भूमि स्वर्ग कांपते उठा प्रलय सदृश निनाद नाद दिग्दिगंत से सिहर उठा कराल काल भाल के तरंग से चला अदम्य काम मिस्र हो लहू के संग जो उठा प्रचंड ज्वार अब्धि पे झुका हो चन्द्र जो अचंड शीश शेष का विकंप , कंप मेदिनी सकल चराचरे अवाक देखते विकट घडी फड़क फड़क भुजा उठी, तरंग अंग भर रहा अनिल सुदीर्घ स्वांस का अनल प्रवाह कर रहा धधक धधक उठी,