फ़ुरक़त का अर्थ
उदाहरण वाक्य
- आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्म-ए-मैफ़रोश रस की बूंदें जब उडा देंगी गुलिस्तानों के होश कुन्ज-ए-रंगीं में पुकारेंगी हवाएं ' जोश जोश' सुन के मेरा नाम मौसम ग़मज़दा हो जाएगा एक महशर सा गुलिस्तां में बपा हो जाएगा
- जो कुछ साज़ व सामान तुम्हारे पास है उसमें अल्लाह से डरो और जो उसका हक़ तुम्हारे ऊपर है उस पर निगाह रखो , उस हक़ की फ़ुरक़त की तरफ़ पलट आओ ( उन हक़ को पहचानो ) जिससे नावाक़फ़ीयत क़ाबिले माफ़ी नहीं है , देखो इताअत के निशानात वाज़ेह , रास्ते रौशन , ‘ ााहेराहें सीधी हैं और मन्ज़िले मक़सूद सामने है जिस पर तमाम अक़्ल वाले वारिद होते हैं।
- नवाब एहसान अली बहादुर ( मरहूम) हो गई सदमा ए फ़ुरक़त से ये हालत एहसान दोस्त भी अब मेरे मरने की दुआ करते हैं एहसान देखो टूटने पाए न कुफ़्ल ए ज़ब्त लब हिल गए तो लज़्ज़त ए ज़ख़्म ए जिगर गई - दानिश कुरैशी (मरहूम) ज़र परस्तों पर और भी इक तन्ज़ फ़ाक़ामस्तों इक आह और सही अभी इन्साँ पे ऐसा वक्त भी आएगा ए दानिश के अपनों से भी अपनी शक्ल पहचानी न जाएगी
- शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-नाज़ , ये दिल की रगों का टूटना ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परीशां, दास्तान-ए-शाम-ए-ग़म सुबह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो जिसकी फ़ुरक़त ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़ आज उसी ईसा नफ़स दमसाज़ की बातें करो फ़िराक़ गोरखपुरी
- नवाब एहसान अली बहादुर ( मरहूम ) हो गई सदमा ए फ़ुरक़त से ये हालत एहसान दोस्त भी अब मेरे मरने की दुआ करते हैं एहसान देखो टूटने पाए न कुफ़्ल ए ज़ब्त लब हिल गए तो लज़्ज़त ए ज़ख़्म ए जिगर गई - दानिश कुरैशी ( मरहूम ) ज़र परस्तों पर और भी इक तन्ज़ फ़ाक़ामस्तों इक आह और सही अभी इन्साँ पे ऐसा वक्त भी आएगा ए दानिश के अपनों से भी अपनी शक्ल पहचानी न जाएगी
- २३ . गई हैं रूठ कर जाने कहाँ वो चाँदनी रातें हुआ करती थीं तुम से जब वो पनघट पर मुलाक़ातें ये बोझल पल जुदाई के ये फ़ुरक़त की स्याह रातें महब्बत में मुक़द्दर ने हमें दी हैं ये सौग़ातें पुरानी बात है लेकिन तुम्हें भी याद हो शायद बहारों के सुनहरे पल महब्बत की हसीं रातें यूँ ही रूठी रहोगी हम से अय जान-ए-ग़ज़ल कब तक हक़ीक़त कब बनेंगी तुम से सपनों की मुलाक़ातें मैं वो सहरा हूँ ‘साग़र'! जिस पे बिन बरसे गए बादल न जाने किस समंदर पर हुई हैं अब वो बरसातें.